स्वर्गलोक से भूलोक में चली आई गंगा
कर निनाद पहाड़ों में बहती चली गंगा
कर निनाद पहाड़ों में बहती चली गंगा
जाति- धर्म से बंधकर नहीं रही गंगा
शीतल-निर्मल जल बहाती चली गंगा
ऋषियों की तपस्थली सदा बनी गंगा
जन-जन के कष्ट हरे ममता मयी गंगा
वसुंधरा को हरित बना बहती रही गंगा
जंगल में मंगल करती बढती रही गंगा
तीर्थ बने नगर सभी जहाँ से निकली गंगा
जन शैलाब उमड़ पडा जहाँ संगम बनी गंगा
बहना ही जीवन जिसका रुकती नहीं गंगा
कागद्विप में जाकर सागर में मिलती गंगा
लेकिन अब अपनी पहचान खो रही गंगा
अमृत बदला जहर में अब सूख रही गंगा
मत आहत करो प्रकृति कहती सबसे गंगा
वरना एक दिन जलजला फिर लाएगी गंगा।
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