बुधवार, 16 अप्रैल 2014

कलैण्डर नहीं जीवन बदलो

प्रत्येक महीने हम
बदलते रहते हैं कलैन्डर
लेकिन नही बदलते जीवन

तारीख़े लाल घेरों
मे ही क़ैद रह जाती है
मुट्ठी से बालू  की तरह
खिसक जाता है जीवन

न जाने कितनी
पूनम की राते
दरवाजे की सांकल
बजा कर ही लौट जाती है        

पूरब की बंसन्ती हवाऐ
बिना मन को झकझोङे
ही चली जाती है

चैत की औस-भीगी सुबह
हमारी अंगड़ाई से पहले ही
निकल जाती है

आजकल तो धूप भी
बंद दरवाजों को  देख कर
सीढ़ियों से ही लौट जाती है

जीवन का आनन्द लेना है 
तो प्रकृति से जुड़ना होगा
किसी नौका में बैठ 
नदी
की सैर पर जाना होगा 

पहाड़ की ऊँची 
चोटी पर चढ़ना होगा
बादलो की कोख से निकलते

सूर्योदय को देखना होगा 

फुलो पर मंडराते भँवरों
का गुंजन सुनना होगा 
डूबते हुए सूर्यास्त का
नजारा देखना होगा 

यदि जीवन का सच्चा आनंद लेना है 
तो कलैण्डर नहीं जीवन को


भी बदलना होगा।






























कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें