हिंदी कविताओं की पुस्तक-रूप में प्रकाशित मेरी यह दूसरी पुस्तक है। पहली रचना "कुमकुम के छींटे" वर्ष २०१२ में प्रकाशित हुयी थी। परिवार और मित्रों ने इस पुस्तक का दिल खोल कर स्वागत किया। मै इस अवसर पर सभी कृपालु और सुहृदय पाठको के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ।
मेरा पहला प्रस्फुटन गद्य में हुआ था। हनुमान जी के जीवन पर एक शौध ग्रंथ के रूप में - "संकट मोचन नाम तिहारो " . लम्बे समय तक व्यापार में व्यस्त रहा और लिखने का समय नहीं मिला। काफी समय से भीतर जो कुछ जम रहा था, उसे फूटने के लिए सही माहौल और तात्कालिक वजहें अमेरिका के प्रथम प्रवास के समय मिली। वहाँ जो समय मिला उसी का सदुपयोग करते हुए "कुमकुम के छींटे'" कागज़ पर उकेर सका।
मई २०१२ में फिर एक बार अमेरिका प्रवास का मौका मिला। लगभग २१ महीने मै पिट्सबर्ग में रहा। उसी समय का सदुपयोग करते हुए मैंने जो कुछ लिखा वो इस पुस्तक के रूप में सुहृदय पाठको के कर-कमलो में समर्पित है। मेरी ये रचनाये कैसी है, इस पर विचार करना मेरा काम नहीं है। "स्वान्तः सुखाय" बहुत बड़ा
शब्द है। मैंने जो कुछ भी रचा है वह "स्वान्तः सुखाय" ही है।
मैंने अपनी कविताओ में जो कुछ भी लिखा है, अपने आस-पास से ही उठाया है। जीवन से प्रेरित हुआ हूँ। जीवन की विडम्बनाओं से, विसंगतियों से, जीते जागते लोगो से। लोगो को उन विसंगतियों से जीते देखा है , उन विडम्बनाओं को देखा है, उन्ही पर कलम चलाई है। हर नया पल जीवन को एक नया अर्थ दे जाता है। और पीछे छोड़ जाता है नए अनुभव, नयी संवेदनायें।
अपनी भावनाओं और जीवन के अनुभवों को व्यक्त करना ही मेरी कविता है। यह अचेतन से चेतन की ओर यात्रा का परिणाम है। लोकजीवन के प्रति समर्पणभाव और उत्तरदायित्व का प्रवाह है। जब लिखता हूँ तो एक तरह का मेडिटेशन होता है। समस्याओं पर गौर करना, परिस्थितियों के माध्यम से उसकी गहराई में जाना और लिखना। मेरी मनस्थिति और बैचैनी ही मेरी कविताओ की स्रोत बनती है।
कविता कोमल अनुभूतियों की उपज होतीं है। जब तक अंतस में प्रीत न जगे कविता सम्भव नही हो पाती। एक सार्थक कविता आत्मदर्पण होती है। वह चन्द शब्दों का असंगत कोलाज़ भर नहीँ होतीं, वह जीवन का जीवंत चित्र होती है. और आत्मा का अनगाया राग भी होतीं है। मन की बातो का अनुगुंजन है कविता। इसी सन्दर्भ में कुछ निजी प्रसंगो पर आधारित कविताएं मैंने अपनी अर्द्धांगिनी श्रीमती सुशीला कांकाणी को समर्पित की है जैसे "क्या वह लमहा तुम्हे याद है", "तुम्हे मुस्कराते देखा होगा", "अहसान तुम्हारा", "मै तुम्हे प्यार करता रहूँ", "जीवन रथ की वल्गा", "प्रेम पत्र", "खुशियों की सीमा", "जीने का मजा आ गया", "पचास वर्षो का सफर", "तुम्हारे साथ", "किसी दिन" आदि आदि।
अपनी लाडली और प्यारी पोती आयशा के प्रति अपने मन के भावो को मैंने प्रकट किया है - "आयशा उठो आँखे खोलो," "एक नहीं परी", "बचपन लौट आया", "मेरे प्यारे दादीजी" आदि। मेरी कविताओँ में प्रेम की झलकियों के साथ प्रकृति का सजीव चित्रण और गांव का निमंत्रण भी है यथा "आओ गांव लौट चले", "गांव का कुआ","दिल में बसा है गांव","गांव की सर्दी","गांव रो पीपल", "गांव की लुगायाँ", "राबड़ी", "मरुधर", "{चौमासो", "मौज मनास्या खेता में", "झूम रही है बाजरियाँ" आदि।राजस्थानी भाषा में जीतनी भी कविताएं लिखी हैं वो सभी प्रायः गांव के परिदृश्य पर लिखी गयी है। जिसे मैंने बचपन में भोगा है और जिसकी यादे आज भी ताजा हैं।
हम कहते है कि स्त्री-पुरुष के रिश्ते स्वर्ग में निर्धारित होते है। मेरे ख़याल में जिस तरह स्वर्ग एक कल्पना है उसी तरह यह उक्ति भी कोरी कल्पना है. वरना तमाम तामझाम के बाद बाँधे गए रिश्ते के धागे क्यों टूट जाते हैं ? मेरी कविता - "सम्बन्ध विच्छेद" और "एक नया सफर" इसी सन्दर्भ में है।
अमेरिका प्रवास में नए लोगो से मिला, नयी संस्कृति - नयी भाषा को समझने का अवसर मिला। मुझे कुछ अच्छा लगा तो कुछ बुरा भी लगा। मैंने जो कुछ भी अपनी नजरो से देखा उसी का वर्णन है इन कविताओ में -"अमेरिका में होली", "हिमपात", "बर्फानी हवा", "पिट्सबर्ग", "फाल का मौसम पिट्सबर्ग", "पिट्टसबर्ग तुम याद आओगे","देखो बसंत आया रे,""अपना देश" आदि।
अप्रवासी भारतीय जो यहाँ ऊपर से इतना खुश, इतना सफल और सम्पन्न दीखता है, भीतर से कितना अकेला , कितना खोखला है यह भी मैंने देखा। "अनकहा दर्द" इसी सन्दर्भ में लिखी कविता है।
कविता की सफलता इसी में है कि वह पढ़ते साथ ही भाव लोक से अर्थलोक की यात्रा करा दे। यह समझना न पड़े कि कविता के गूढ़ार्थ क्या है। एक फूल की तरह सुवास को प्राण तक पहुंचा दे। जब पाठक स्वयं को उस भाव व्यंजना मे समाहित कर लेता है तब ही रचना मे प्राण प्रतिष्ठता होती है।मेरी पुस्तक "कुमकुम के छींटे" में "टूटता सपना" नामक कविता पढ़ कर जब श्री संतोष जी जैन ने मुझे फोन पर कहा कि अरे ! ऐसा तो मै भी सोचता हूँ। किसी रचनात्मक सृजन की इससे ज्यादा सार्थकता और क्या हो सकती है कि पढने वाला उससे तादात्म्य स्थापित कर ले।
प्रभु की असीम अनुकम्पा कि परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्यों का सहयोग और मार्ग-दर्शन बराबर मिलता रहा। साहजी श्री दामोदर प्रसाद जी महेश्वरी कोलकाता, श्री शम्भुदयालजी सोमाणी देरगाँव, श्री गोकुलदास जी सारड़ा जयपुर,श्री सुरेश कुमार जी राठी कोलकात्ता का मै आभार व्यक्त करना चाहूंगा, जिनका प्रोत्साहन मुझे सतत लिखने के लिये प्रेरित करता रहा।
पुस्तक की अनुशंसा लिखने के लिये प्रख्यात राष्ट्र कवि श्री दिनेश जी रघुवंशी ने मेरे अनुरोध को सहज ही स्वीकार कर लिया। उन्होंने न केवल एक-एक कविता को पढ़ कर सजाया और संवारा बल्कि अपना अमूल्य समय देकर मेरा पथ-प्रदर्शन भी किया। मै उनका जितना भी आभार प्रकट करूँ वो कम ही होगा। राजस्थानी कविताओं का श्रेय जाता है श्री बंशीधर जी शर्मा (अधिवक्ता ) को जिन्होंने अपना अमूल्य समय देकर मेरी कविताओं को सजाया और संवारा। मै उनका भी आभार प्रकट करना चाहूंगा।
मेरा पहला प्रस्फुटन गद्य में हुआ था। हनुमान जी के जीवन पर एक शौध ग्रंथ के रूप में - "संकट मोचन नाम तिहारो " . लम्बे समय तक व्यापार में व्यस्त रहा और लिखने का समय नहीं मिला। काफी समय से भीतर जो कुछ जम रहा था, उसे फूटने के लिए सही माहौल और तात्कालिक वजहें अमेरिका के प्रथम प्रवास के समय मिली। वहाँ जो समय मिला उसी का सदुपयोग करते हुए "कुमकुम के छींटे'" कागज़ पर उकेर सका।
मई २०१२ में फिर एक बार अमेरिका प्रवास का मौका मिला। लगभग २१ महीने मै पिट्सबर्ग में रहा। उसी समय का सदुपयोग करते हुए मैंने जो कुछ लिखा वो इस पुस्तक के रूप में सुहृदय पाठको के कर-कमलो में समर्पित है। मेरी ये रचनाये कैसी है, इस पर विचार करना मेरा काम नहीं है। "स्वान्तः सुखाय" बहुत बड़ा
शब्द है। मैंने जो कुछ भी रचा है वह "स्वान्तः सुखाय" ही है।
मैंने अपनी कविताओ में जो कुछ भी लिखा है, अपने आस-पास से ही उठाया है। जीवन से प्रेरित हुआ हूँ। जीवन की विडम्बनाओं से, विसंगतियों से, जीते जागते लोगो से। लोगो को उन विसंगतियों से जीते देखा है , उन विडम्बनाओं को देखा है, उन्ही पर कलम चलाई है। हर नया पल जीवन को एक नया अर्थ दे जाता है। और पीछे छोड़ जाता है नए अनुभव, नयी संवेदनायें।
अपनी भावनाओं और जीवन के अनुभवों को व्यक्त करना ही मेरी कविता है। यह अचेतन से चेतन की ओर यात्रा का परिणाम है। लोकजीवन के प्रति समर्पणभाव और उत्तरदायित्व का प्रवाह है। जब लिखता हूँ तो एक तरह का मेडिटेशन होता है। समस्याओं पर गौर करना, परिस्थितियों के माध्यम से उसकी गहराई में जाना और लिखना। मेरी मनस्थिति और बैचैनी ही मेरी कविताओ की स्रोत बनती है।
कविता कोमल अनुभूतियों की उपज होतीं है। जब तक अंतस में प्रीत न जगे कविता सम्भव नही हो पाती। एक सार्थक कविता आत्मदर्पण होती है। वह चन्द शब्दों का असंगत कोलाज़ भर नहीँ होतीं, वह जीवन का जीवंत चित्र होती है. और आत्मा का अनगाया राग भी होतीं है। मन की बातो का अनुगुंजन है कविता। इसी सन्दर्भ में कुछ निजी प्रसंगो पर आधारित कविताएं मैंने अपनी अर्द्धांगिनी श्रीमती सुशीला कांकाणी को समर्पित की है जैसे "क्या वह लमहा तुम्हे याद है", "तुम्हे मुस्कराते देखा होगा", "अहसान तुम्हारा", "मै तुम्हे प्यार करता रहूँ", "जीवन रथ की वल्गा", "प्रेम पत्र", "खुशियों की सीमा", "जीने का मजा आ गया", "पचास वर्षो का सफर", "तुम्हारे साथ", "किसी दिन" आदि आदि।
अपनी लाडली और प्यारी पोती आयशा के प्रति अपने मन के भावो को मैंने प्रकट किया है - "आयशा उठो आँखे खोलो," "एक नहीं परी", "बचपन लौट आया", "मेरे प्यारे दादीजी" आदि। मेरी कविताओँ में प्रेम की झलकियों के साथ प्रकृति का सजीव चित्रण और गांव का निमंत्रण भी है यथा "आओ गांव लौट चले", "गांव का कुआ","दिल में बसा है गांव","गांव की सर्दी","गांव रो पीपल", "गांव की लुगायाँ", "राबड़ी", "मरुधर", "{चौमासो", "मौज मनास्या खेता में", "झूम रही है बाजरियाँ" आदि।राजस्थानी भाषा में जीतनी भी कविताएं लिखी हैं वो सभी प्रायः गांव के परिदृश्य पर लिखी गयी है। जिसे मैंने बचपन में भोगा है और जिसकी यादे आज भी ताजा हैं।
हम कहते है कि स्त्री-पुरुष के रिश्ते स्वर्ग में निर्धारित होते है। मेरे ख़याल में जिस तरह स्वर्ग एक कल्पना है उसी तरह यह उक्ति भी कोरी कल्पना है. वरना तमाम तामझाम के बाद बाँधे गए रिश्ते के धागे क्यों टूट जाते हैं ? मेरी कविता - "सम्बन्ध विच्छेद" और "एक नया सफर" इसी सन्दर्भ में है।
अमेरिका प्रवास में नए लोगो से मिला, नयी संस्कृति - नयी भाषा को समझने का अवसर मिला। मुझे कुछ अच्छा लगा तो कुछ बुरा भी लगा। मैंने जो कुछ भी अपनी नजरो से देखा उसी का वर्णन है इन कविताओ में -"अमेरिका में होली", "हिमपात", "बर्फानी हवा", "पिट्सबर्ग", "फाल का मौसम पिट्सबर्ग", "पिट्टसबर्ग तुम याद आओगे","देखो बसंत आया रे,""अपना देश" आदि।
अप्रवासी भारतीय जो यहाँ ऊपर से इतना खुश, इतना सफल और सम्पन्न दीखता है, भीतर से कितना अकेला , कितना खोखला है यह भी मैंने देखा। "अनकहा दर्द" इसी सन्दर्भ में लिखी कविता है।
कविता की सफलता इसी में है कि वह पढ़ते साथ ही भाव लोक से अर्थलोक की यात्रा करा दे। यह समझना न पड़े कि कविता के गूढ़ार्थ क्या है। एक फूल की तरह सुवास को प्राण तक पहुंचा दे। जब पाठक स्वयं को उस भाव व्यंजना मे समाहित कर लेता है तब ही रचना मे प्राण प्रतिष्ठता होती है।मेरी पुस्तक "कुमकुम के छींटे" में "टूटता सपना" नामक कविता पढ़ कर जब श्री संतोष जी जैन ने मुझे फोन पर कहा कि अरे ! ऐसा तो मै भी सोचता हूँ। किसी रचनात्मक सृजन की इससे ज्यादा सार्थकता और क्या हो सकती है कि पढने वाला उससे तादात्म्य स्थापित कर ले।
प्रभु की असीम अनुकम्पा कि परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्यों का सहयोग और मार्ग-दर्शन बराबर मिलता रहा। साहजी श्री दामोदर प्रसाद जी महेश्वरी कोलकाता, श्री शम्भुदयालजी सोमाणी देरगाँव, श्री गोकुलदास जी सारड़ा जयपुर,श्री सुरेश कुमार जी राठी कोलकात्ता का मै आभार व्यक्त करना चाहूंगा, जिनका प्रोत्साहन मुझे सतत लिखने के लिये प्रेरित करता रहा।
पुस्तक की अनुशंसा लिखने के लिये प्रख्यात राष्ट्र कवि श्री दिनेश जी रघुवंशी ने मेरे अनुरोध को सहज ही स्वीकार कर लिया। उन्होंने न केवल एक-एक कविता को पढ़ कर सजाया और संवारा बल्कि अपना अमूल्य समय देकर मेरा पथ-प्रदर्शन भी किया। मै उनका जितना भी आभार प्रकट करूँ वो कम ही होगा। राजस्थानी कविताओं का श्रेय जाता है श्री बंशीधर जी शर्मा (अधिवक्ता ) को जिन्होंने अपना अमूल्य समय देकर मेरी कविताओं को सजाया और संवारा। मै उनका भी आभार प्रकट करना चाहूंगा।
पुस्तक प्रकाशन में श्री राम जी सोनी, प्रबंधक हाईमेन कंम्प्युप्रिंट एवं श्री सोमनाथ जी का विशेष सहयोग मिला तदर्थ धन्यवाद। सभी कविताएं सरल भाषा में, बोलचाल की शैली में लिखी गयी है, आशा है पाठक वृंद इसे अपना आशीर्वाद देंगे।