शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

प्राक्कथन

हिंदी कविताओं की पुस्तक-रूप में प्रकाशित मेरी यह दूसरी पुस्तक है।  पहली रचना "कुमकुम के छींटे"  वर्ष २०१२ में प्रकाशित हुयी थी।  परिवार और मित्रों  ने इस पुस्तक का दिल खोल कर स्वागत किया। मै इस अवसर पर सभी कृपालु और सुहृदय पाठको के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ।

मेरा पहला प्रस्फुटन गद्य में हुआ था।  हनुमान जी के जीवन पर एक शौध ग्रंथ के रूप में - "संकट मोचन नाम तिहारो " .  लम्बे समय तक  व्यापार  में व्यस्त रहा और लिखने का समय नहीं मिला।  काफी समय से भीतर जो कुछ जम रहा था, उसे फूटने के लिए सही माहौल और तात्कालिक वजहें अमेरिका  के प्रथम प्रवास के समय मिली।  वहाँ जो समय मिला उसी का सदुपयोग करते हुए  "कुमकुम के छींटे'" कागज़ पर उकेर सका।

मई २०१२ में फिर एक बार अमेरिका प्रवास का मौका मिला।  लगभग २१ महीने मै पिट्सबर्ग में रहा।  उसी समय का सदुपयोग करते हुए मैंने जो कुछ लिखा वो इस पुस्तक के रूप में सुहृदय पाठको के कर-कमलो में समर्पित है।  मेरी ये रचनाये कैसी है, इस पर विचार करना मेरा काम नहीं है।  "स्वान्तः सुखाय" बहुत बड़ा
शब्द है।  मैंने जो कुछ भी रचा है वह "स्वान्तः सुखाय" ही  है।

मैंने अपनी कविताओ में जो कुछ भी लिखा है, अपने आस-पास से ही उठाया है।  जीवन से प्रेरित हुआ हूँ।   जीवन की विडम्बनाओं से, विसंगतियों से, जीते जागते लोगो से।  लोगो को उन विसंगतियों से जीते देखा है , उन विडम्बनाओं को देखा है, उन्ही पर कलम चलाई है।  हर नया पल जीवन  को एक नया अर्थ दे जाता है।  और पीछे छोड़ जाता है नए अनुभव, नयी  संवेदनायें।

अपनी भावनाओं और जीवन के अनुभवों को व्यक्त करना ही मेरी कविता है।  यह अचेतन से चेतन की ओर यात्रा का परिणाम है। लोकजीवन के प्रति समर्पणभाव और उत्तरदायित्व का प्रवाह है।  जब लिखता हूँ तो एक तरह का मेडिटेशन होता है। समस्याओं पर गौर करना, परिस्थितियों के माध्यम से उसकी गहराई में जाना और लिखना।  मेरी मनस्थिति और बैचैनी ही मेरी कविताओ की स्रोत बनती है।

कविता कोमल अनुभूतियों की उपज होतीं  है। जब तक अंतस में प्रीत न जगे कविता  सम्भव नही हो पाती। एक सार्थक कविता आत्मदर्पण होती है।  वह चन्द शब्दों का असंगत कोलाज़ भर नहीँ  होतीं, वह जीवन का जीवंत चित्र होती है. और आत्मा का अनगाया राग भी होतीं है।  मन की बातो का अनुगुंजन है कविता।  इसी सन्दर्भ में कुछ निजी प्रसंगो पर आधारित कविताएं  मैंने अपनी अर्द्धांगिनी श्रीमती सुशीला कांकाणी को समर्पित की है जैसे "क्या वह लमहा तुम्हे याद है", "तुम्हे मुस्कराते देखा होगा", "अहसान तुम्हारा", "मै तुम्हे प्यार करता रहूँ", "जीवन रथ की वल्गा", "प्रेम पत्र", "खुशियों की सीमा", "जीने का मजा आ गया", "पचास  वर्षो का सफर", "तुम्हारे साथ", "किसी दिन" आदि आदि।

अपनी लाडली और प्यारी पोती आयशा के प्रति अपने मन के भावो को मैंने प्रकट किया है - "आयशा उठो आँखे खोलो," "एक नहीं परी", "बचपन लौट आया", "मेरे प्यारे दादीजी" आदि। मेरी कविताओँ में  प्रेम की झलकियों के साथ प्रकृति का सजीव चित्रण और गांव का निमंत्रण भी है  यथा  "आओ गांव लौट चले", "गांव का कुआ","दिल में बसा है गांव","गांव की सर्दी","गांव रो पीपल", "गांव की लुगायाँ", "राबड़ी", "मरुधर", "{चौमासो", "मौज मनास्या खेता में", "झूम रही है बाजरियाँ" आदि।राजस्थानी भाषा में जीतनी भी कविताएं लिखी हैं वो सभी प्रायः गांव के परिदृश्य पर लिखी गयी है।  जिसे मैंने बचपन में भोगा है और जिसकी यादे आज भी ताजा हैं।

हम कहते है कि स्त्री-पुरुष के रिश्ते स्वर्ग में निर्धारित होते है।  मेरे ख़याल  में जिस तरह स्वर्ग एक कल्पना है उसी तरह यह उक्ति भी कोरी कल्पना  है. वरना तमाम  तामझाम के बाद बाँधे  गए रिश्ते के धागे क्यों टूट जाते हैं ? मेरी कविता - "सम्बन्ध विच्छेद" और "एक नया सफर" इसी सन्दर्भ में है।

अमेरिका प्रवास में नए लोगो से मिला, नयी संस्कृति - नयी भाषा को समझने का अवसर मिला।  मुझे कुछ अच्छा लगा तो कुछ बुरा भी लगा। मैंने जो कुछ भी अपनी नजरो से देखा उसी का वर्णन है इन कविताओ  में -"अमेरिका में होली", "हिमपात", "बर्फानी हवा", "पिट्सबर्ग", "फाल का मौसम पिट्सबर्ग", "पिट्टसबर्ग तुम याद आओगे","देखो बसंत आया रे,""अपना देश" आदि।

अप्रवासी भारतीय जो यहाँ ऊपर से इतना खुश, इतना सफल और सम्पन्न  दीखता है, भीतर से कितना अकेला , कितना खोखला है यह भी मैंने देखा।  "अनकहा दर्द" इसी सन्दर्भ में लिखी कविता है।

कविता की सफलता इसी में  है कि वह पढ़ते साथ ही भाव लोक से अर्थलोक की यात्रा करा दे। यह समझना न पड़े कि कविता के गूढ़ार्थ क्या है। एक फूल की तरह सुवास को प्राण तक पहुंचा दे। जब पाठक स्वयं को उस भाव व्यंजना मे समाहित कर लेता है तब ही रचना मे  प्राण प्रतिष्ठता  होती है।मेरी पुस्तक "कुमकुम के छींटे" में "टूटता सपना" नामक  कविता पढ़ कर जब श्री संतोष जी जैन ने मुझे फोन पर कहा कि अरे ! ऐसा तो मै भी सोचता हूँ। किसी रचनात्मक सृजन की इससे ज्यादा सार्थकता और क्या हो सकती है कि पढने वाला उससे तादात्म्य स्थापित कर ले।

प्रभु की असीम अनुकम्पा कि परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्यों का सहयोग और मार्ग-दर्शन बराबर मिलता रहा।  साहजी श्री दामोदर प्रसाद जी महेश्वरी कोलकाता, श्री शम्भुदयालजी सोमाणी देरगाँव,  श्री गोकुलदास जी सारड़ा जयपुर,श्री सुरेश कुमार जी राठी कोलकात्ता का मै आभार व्यक्त करना चाहूंगा, जिनका प्रोत्साहन मुझे सतत लिखने के लिये प्रेरित करता रहा।

पुस्तक की अनुशंसा लिखने के लिये प्रख्यात राष्ट्र कवि श्री दिनेश जी रघुवंशी ने मेरे अनुरोध को सहज ही स्वीकार कर लिया। उन्होंने  न केवल एक-एक कविता को पढ़ कर सजाया और  संवारा बल्कि  अपना अमूल्य समय देकर मेरा पथ-प्रदर्शन भी किया।  मै उनका जितना भी आभार प्रकट करूँ वो कम ही होगा। राजस्थानी कविताओं का श्रेय जाता है श्री बंशीधर जी शर्मा (अधिवक्ता ) को जिन्होंने अपना अमूल्य समय देकर मेरी कविताओं को सजाया और संवारा। मै उनका भी आभार प्रकट करना चाहूंगा।



पुस्तक प्रकाशन में श्री राम जी सोनी, प्रबंधक हाईमेन कंम्प्युप्रिंट एवं श्री सोमनाथ जी का विशेष सहयोग मिला तदर्थ धन्यवाद। सभी कविताएं सरल भाषा में, बोलचाल की शैली में लिखी गयी है, आशा है पाठक वृंद इसे अपना आशीर्वाद देंगे।

भूमिका

मै मानता हूँ कि कोई भी रचना तब तक ही रचनाकार की होती है जब तक वह दूसरों के सामने किसी रूप में नहीं  आती  है।  एक बार रचना दूसरों तक पहुंची तो वह मात्र रचनाकार की नहीँ रहतीं, उस पर सब का अधिकार हो जाता है।  प्रत्येक रचनाकार रचना धर्मिता मे अधिकांश अपने आस पास के वातावरण को ही शब्दोँ का जामा पहनाने का प्रयत्न करता है।  हाँ, यह उसके कलम का कौशल है कि उसको  पढ़ते हुए या सुनते हुए पाठक अथवा श्रोता अचानक अपने आप को अभिव्यक्त होते हुये देखता है।

श्री भागीरथ कांकाणी का यह दूसरा काव्य संग्रह है।  प्रथम काव्य संग्रह "कुमकुम के छीटें" भी मुझे पढने का सुअवसर मिला।  एक समर्थ रचनाकार के रूप मे श्री भागीरथ कांकाणी का  यह संग्रह सब स्वीकार् करेगे, यह निश्चित है।

कवि किसी के दर्द को अपना समझकर जब रचना धर्मिता करता है तो वह अपनी श्रेस्ठता को प्राप्त होता है। कवि अपने आस पास के वातावरण को शब्द रूप देकर उसे पाठक के सामने जीवित कर देता है और ऐसी अनेक रचनाऐं हैं जिनमे शब्द स्वयंं बोलते प्रतीत होते हैं।  यह संग्रह एक बार में ही पुरा पढ़ा जाने वाली पुस्तकों में शामिल किया जायेगा, ऐसी मेरी सोच है। 

उनकी हर कविता मे मन जैसे डूब सा जाता है।  मनुष्य आपाधापी  के माहौल में जिस सुख से वंचित  हो रहा है,श्री भागीरथ जी क़ी  कविताऐं उसे चेताती प्रतीत होतीं हैं।  कवि मन कहता है अभी समय है, पहचान अपने को वरन देर हो जायेगी। उनका कवि मानवता को सर्वोपरि बनाये रखने के लिए शब्द पिरोता है. शब्द माला मे ये मोती पिरोते हुए वो एक ऐसा रचना संसार बना सके हैं जो हमे अपने भीतर झांकने पर विवश करेगा। उनकी शब्द साधना कहीं भगीरथ की साधना जैसी ही है।  उनकी शब्द गंगा मे हमारा मन कहीं आचमन करता है तो कहीं स्वयंं भीग सा जाता मेहसूस होता है।  रिश्तों का खोखलापन यदि उजागर किया गया है तो रिश्तों की गहराई और अपनापन कहीं ज्यादा प्रभावी मुखर हुआ है।  बल्कि यूं कहना ज्यादा ठीक होगा कि उनकी कविताओं से मन कहीं कहीं कसैला तो क्षण मात्र होता हो लेकिन कविताओं की  मिठास तो अन्तर्मन में समा जाती है।  और यह मिठास पाठक अपनी सांसों मे घुलती हुई मह्सूस करने लगता है।  यही क्षमता है और सार्थकता  भी।  

पुराणों में वर्णित है भगीरथ को गंगा को धरती पर लाने में अपार कष्ट हुआ लेकिन संकल्प के धनी भगीरथ अपने लक्ष्य से कभी विचलित नहीं हुए और संसार को माँ गंगा जैसी  जीवन  दायिनी- मोक्ष तारिणी मिल सकी। ऐसे ही, वर्तमान में शब्दों को साधते हुऐ श्री भागीरथ कांकाणी अपने ह्रदय कमल से पवित्र शब्दों को अमृत की  भांति बांटते चल रहे हैं और मानव को सिर्फ़ मानवता का पाठ पढ़ा रहे हैं।  उनकी अधिकांश कविताऐं जीवन से भरपूर हैं। दीर्घ अमेरिकी प्रवास का लाभ उठते हुए श्री भागीरथ कांकाणी ने वहाँ के सम्पूर्ण परिवेश को अपनी कविताओं मे समेट दिया है।  एक तरह से जिनके लिए अमेरिका अनदेखा है, वो भी कांकाणी जी के शब्दों मे डूबते- उतराते अमेरिका का सोन्दर्य महसूस कर रहे होगें।  लेकिन दूर देश में रहते हुए भी  उन्होंने अपनी माटी की गंध को अपने मे सदा समोहित किया। उनके मानस में उनका गाँव आज भी वैसे ही विद्यमान है जैसा उन्होने बालपन मे देख था।  सूर्योदय के समय बालकों का दीवार के साथ टकटकी लगाकर पहली किरण का इन्तजार करना,ये छोटी सी खुशी महानगरों के बच्चों को पता भी नहीं है अब।  कवि गाँव के पनघट की महिमा को प्रस्तुत करते हुए जीवन मे जल के महत्व को भी दर्शानेँ मे कामयाब हुए हैँ। 

यदि एक भी पाठक अथवा श्रोता कवि की काव्य-भावना से प्रेरित हो कर देहदान जैसे सँकल् को बनाता है यह कविता की उपलब्धि ही होगी।  और यह तय है कि प्रेरक कविताओं से दुसरों को जीवन क सुख देने की हमारी प्रवृति को बल मिलेगा।  

अपने परिवार को सदैव अपने ह्रदय मे आश्रय देने वाले श्री कांकाणी ज़ी अपने परिजनों को अपने पूर्वजों के सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करते दिखाई देंगे। वहीँ परिवार में नन्ही कली आयशा का आगमन उनके लिऐ जीवन का सबसे बड़ा उत्सव हो गया है।  

मेरा मानना है कवि श्री भागीरथ कांकाणी के इस भगीरथ प्रयास को सुधि पाठक गहराई से आत्मसात करेँगे और उनकी कविताओं से प्रेरणा पाकर अपने जीवन को सुगम भी बना सकेंगे। स्वान्त सुखाय लेखनी भी अक्सर सिद्ध रचनाकारों से बड़ी कविताऐं लिखवा देतीं है।  श्री भागीरथ कांकाणी की  यह काव्य पुस्तक पाठकों को एक नया संसार देगी।  

अनंत शुभ कामनाऐं।  अक्षय तृतीया २०७१ , २ मई २०१४
                                                                                                                            

दिनेश  रघुवंशी
कवि 
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शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

सुन्दर रूप तिहारो

बालपने मुख माटी खाई
मुख में तीनो लोक दिखाया
                 सूखे तंदुल चाव से  खाकर
                  बाल सखा का मान बढ़ाया

मीरा का विष अमृत कीनो
द्रोपद  सूत को चिर बढायो
                  ग्वाल-बल संग धेनु चराई
               गोपियन के संग रास रचायो

इंद्र कोप करयो ब्रज ऊपर
अँगुली पर गोवर्धन धारयो
                    पापी कंस को मार गिरायो
                     कपटी कौरव वंस मिटायो

गीता ज्ञान दियो अर्जुन को
   समर भूमि में बने खेवैया
                      कुँज गली में माखन खायो
                          कालिदेह के नाग नथैया

नाना रूप धरे प्रभु जग में
धरुँ ध्यान इस सूरत से
                            इतनो सुन्दर रूप तिहारो
                            अंखियां हटे नहीं मूरत से।  

गीत गाया तुमने

मेरी अंधियारी राहों में
ज्योति दीप जलाया तुमने
                      बूँद-बूँद में अमृत भर
                जीवन आश जगाई तुमने

जीवन के सुख-दुःख में
मेरा साथ निभाया तुमने
                    मेरे लिखे प्रेम गीतों को
                 अपने स्वर में गाया तुमने

   मेरी प्रति छाया बन कर
मुझको अंग लगाया तुमने
                      मेरे जीवन के हर रंग में
                      इंद्रधनुष सजाया तुमने

    मेरे चंचल नयनों में
राधा बन कर आई तुम
                     मेरी जीवन की बगियाँ में
                     सावन बन कर बरसी तुम

नाम भगीरथ रख कर भी
मै  ला न सका  गंगाधारा
                         तुम बनी स्वाती की बूँद
                        लेकर सागर से जल खारा। 

अब घर आज्या रे



उमड़-घुमड़ कर
बादल बरसे
बिजली चमके
मन मेरा डोले रे
सजनवा अब घर आज्या रे।

धुप गुनगुनी
भोर लावनी
धरा फागुनी
होली आई रे
सजनवा अब घर आज्या रे।

अमियाँ बौराई
सरसों फूली
महुआ महका 
झूमी वल्लरियाँ रे
सजनवा अब घर आज्या रे।

पायल-बिछिया
पाँव महावर
कमर करधनी 
जिया जलाए रे
सजनवा अब घर आज्या रे।

मन बौराया
तन गदराया
चैत चाँदनी
फगुआई रे
सजनवा अब घर आज्या रे।

क्या वह लमहा तुम्हे याद है ?




जब हम गंगा में
माटी के दीपक
प्रवाहित करते और
देखते रहते कि किसका
दीपक आगे निकलता है
क्या वह लमहा तुम्हे याद है ?


जब हम सागर से 
सीपिया चुन-चुन कर 
इकट्ठी करते और
देखते रहते कि किसकी
सीपी से मोती निकलता है
क्या वह लमहा तुम्हे याद है ?


जब हम झील के
किनारे बैठे रहते और 
बादलो की रिमझिम फुहारों में
भीगते हुए तुम कहती 
ये पहाड़ कितने अपने लगते हैं
क्या वह लमहा तुम्हे याद है ?
  

जब हम चाँदनी रात में
छत पर जाकर सोते और
टूटते हुए तारों को देख कर
तुम कहती तारों का टूटना मुझे
अच्छा नहीं लगता
क्या वह लमहा तुम्हे याद है ?

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

रूठे को मनाएं

जो भी हम से रूठ गये
या जो हमको छोड़ गये
           
                      आओ उनको आज मनाऐं
                         बड़े प्यार से गले लगाऐं

    एक बार बाहों में भर कर
पुलकित हो कर कंठ लगाऐं
           
                  अपने मन का द्वेष हटा कर
                      फिर से उनको पास बैठाऐं

 भूल हुयी जो उसे भुलाऐं
वर्त्तमान को सुखद बनाऐं
               
                          जीवन का है नहीं भरोसा
                         आने वाला पल क्या लाये

   बैर भाव को मन से त्यागे
दया-क्षमा को फिर अपनाये
                 
                         अपनत्व का भाव जगा कर


                        फिर से प्यार का दीप जलाऐें। 

अपना बनाना

मै तुम्हारे
नाम का उच्चारण
दुनिया की प्रत्येक भाषा
में करना चाहता हूँ

मै तुम्हारे
एक-एक रोम में
अपने प्यार को मुदित
करना चाहता हूँ

मै तुम्हारे
करुणा, प्रेम और त्याग का
पर्याय दुनिया की प्रत्येक भाषा में
ढूढंना चाहता हूँ

मै  तुम्हे उन
हज़ारो नामों से पुकारना चाहता हूँ
जन्म जन्मान्तर के लिए अपना
बनाना चाहता हूँ

मै फूल की
हर पंखुड़ी पर तुम्हारा नाम
अपने हाथों से लिखना
चाहता हूँ

मै फूल की
खुशबू के साथ-साथ
तुम्हारा नाम पुरी दुनिया में
फैलाना चाहता हूँ।

आओ गाँव लोट चले

अब नहीं सहा जाता
कंकरीट के जंगल में 
भीड़ भरा यह सूनापन
आओ, गाँव लौट चले मुदित मन

घर के पिछवाड़े बेलों
महकने लगी होगी गंध 
बाजरी के सिट्टो पर अब 
लग गया होगा मकरंद 
मक्की के भुट्टो पर 
छाया होगा अब यौवन 
आओ, गाँव लौट चले मुदित मन 

खेत की मेड़ों पर अब भी
खड़ी होगी मीठी बाते  
खेजड़ी की छांव तले
मंडराते होंगे अलगोजे
चिड़िया चहक रही होगी आँगन 
आओ, गाँव लौट चले मुदित मन 

सरसों बल खाती होगी
पछुवा धूल उड़ाती होगी 
अंगड़ाता होगा खलिहानों में
फिर से नया सृजन
बैसाखी पर नाचा होगा
खेतोँ  में फिर से योंवन
आओ, गाँव लोट चले मुदित मन 

अब नहीं सहा जाता
कंकरीट के जंगल में 
भीड़ भरा यह सूनापन
आओ गाँव लोट चले मुदित मन।

गंगा

भगीरथ के  तप प्रताप से
तारण हार बन आई गंगा  
           
                   शिव की जटाओ  में  उतर 
                    कैलाश से निचे आई गंगा

हिम शिखरों को लगा अंग  
बल खाती हुयी आई  गंगा 
           
                    नदी नालो को लेकर  संग
                    देश की नियंता बनी  गंगा

अपने पथ को हरित बना
गावों को समृद्ध करे गंगा
           
                     पान करा अमृत  सा जल
                     सागर से जाय मिले गंगा 

घाटो  पर सुन्दर  तीर्थ बने
संतो की शरण स्थली गंगा
         
                  जीवन दायिनी मोक्ष दायिनी
                       भव सागर पार करे  गंगा

अन्तिम साँस थमे तट पर
   बैकुंठ की सीढ़ी बने गंगा
               
                    दुखियों के दुःख को दूर करे
                        जीवन  के पाप हरे गंगा।