शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

भूमिका

मै मानता हूँ कि कोई भी रचना तब तक ही रचनाकार की होती है जब तक वह दूसरों के सामने किसी रूप में नहीं  आती  है।  एक बार रचना दूसरों तक पहुंची तो वह मात्र रचनाकार की नहीँ रहतीं, उस पर सब का अधिकार हो जाता है।  प्रत्येक रचनाकार रचना धर्मिता मे अधिकांश अपने आस पास के वातावरण को ही शब्दोँ का जामा पहनाने का प्रयत्न करता है।  हाँ, यह उसके कलम का कौशल है कि उसको  पढ़ते हुए या सुनते हुए पाठक अथवा श्रोता अचानक अपने आप को अभिव्यक्त होते हुये देखता है।

श्री भागीरथ कांकाणी का यह दूसरा काव्य संग्रह है।  प्रथम काव्य संग्रह "कुमकुम के छीटें" भी मुझे पढने का सुअवसर मिला।  एक समर्थ रचनाकार के रूप मे श्री भागीरथ कांकाणी का  यह संग्रह सब स्वीकार् करेगे, यह निश्चित है।

कवि किसी के दर्द को अपना समझकर जब रचना धर्मिता करता है तो वह अपनी श्रेस्ठता को प्राप्त होता है। कवि अपने आस पास के वातावरण को शब्द रूप देकर उसे पाठक के सामने जीवित कर देता है और ऐसी अनेक रचनाऐं हैं जिनमे शब्द स्वयंं बोलते प्रतीत होते हैं।  यह संग्रह एक बार में ही पुरा पढ़ा जाने वाली पुस्तकों में शामिल किया जायेगा, ऐसी मेरी सोच है। 

उनकी हर कविता मे मन जैसे डूब सा जाता है।  मनुष्य आपाधापी  के माहौल में जिस सुख से वंचित  हो रहा है,श्री भागीरथ जी क़ी  कविताऐं उसे चेताती प्रतीत होतीं हैं।  कवि मन कहता है अभी समय है, पहचान अपने को वरन देर हो जायेगी। उनका कवि मानवता को सर्वोपरि बनाये रखने के लिए शब्द पिरोता है. शब्द माला मे ये मोती पिरोते हुए वो एक ऐसा रचना संसार बना सके हैं जो हमे अपने भीतर झांकने पर विवश करेगा। उनकी शब्द साधना कहीं भगीरथ की साधना जैसी ही है।  उनकी शब्द गंगा मे हमारा मन कहीं आचमन करता है तो कहीं स्वयंं भीग सा जाता मेहसूस होता है।  रिश्तों का खोखलापन यदि उजागर किया गया है तो रिश्तों की गहराई और अपनापन कहीं ज्यादा प्रभावी मुखर हुआ है।  बल्कि यूं कहना ज्यादा ठीक होगा कि उनकी कविताओं से मन कहीं कहीं कसैला तो क्षण मात्र होता हो लेकिन कविताओं की  मिठास तो अन्तर्मन में समा जाती है।  और यह मिठास पाठक अपनी सांसों मे घुलती हुई मह्सूस करने लगता है।  यही क्षमता है और सार्थकता  भी।  

पुराणों में वर्णित है भगीरथ को गंगा को धरती पर लाने में अपार कष्ट हुआ लेकिन संकल्प के धनी भगीरथ अपने लक्ष्य से कभी विचलित नहीं हुए और संसार को माँ गंगा जैसी  जीवन  दायिनी- मोक्ष तारिणी मिल सकी। ऐसे ही, वर्तमान में शब्दों को साधते हुऐ श्री भागीरथ कांकाणी अपने ह्रदय कमल से पवित्र शब्दों को अमृत की  भांति बांटते चल रहे हैं और मानव को सिर्फ़ मानवता का पाठ पढ़ा रहे हैं।  उनकी अधिकांश कविताऐं जीवन से भरपूर हैं। दीर्घ अमेरिकी प्रवास का लाभ उठते हुए श्री भागीरथ कांकाणी ने वहाँ के सम्पूर्ण परिवेश को अपनी कविताओं मे समेट दिया है।  एक तरह से जिनके लिए अमेरिका अनदेखा है, वो भी कांकाणी जी के शब्दों मे डूबते- उतराते अमेरिका का सोन्दर्य महसूस कर रहे होगें।  लेकिन दूर देश में रहते हुए भी  उन्होंने अपनी माटी की गंध को अपने मे सदा समोहित किया। उनके मानस में उनका गाँव आज भी वैसे ही विद्यमान है जैसा उन्होने बालपन मे देख था।  सूर्योदय के समय बालकों का दीवार के साथ टकटकी लगाकर पहली किरण का इन्तजार करना,ये छोटी सी खुशी महानगरों के बच्चों को पता भी नहीं है अब।  कवि गाँव के पनघट की महिमा को प्रस्तुत करते हुए जीवन मे जल के महत्व को भी दर्शानेँ मे कामयाब हुए हैँ। 

यदि एक भी पाठक अथवा श्रोता कवि की काव्य-भावना से प्रेरित हो कर देहदान जैसे सँकल् को बनाता है यह कविता की उपलब्धि ही होगी।  और यह तय है कि प्रेरक कविताओं से दुसरों को जीवन क सुख देने की हमारी प्रवृति को बल मिलेगा।  

अपने परिवार को सदैव अपने ह्रदय मे आश्रय देने वाले श्री कांकाणी ज़ी अपने परिजनों को अपने पूर्वजों के सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करते दिखाई देंगे। वहीँ परिवार में नन्ही कली आयशा का आगमन उनके लिऐ जीवन का सबसे बड़ा उत्सव हो गया है।  

मेरा मानना है कवि श्री भागीरथ कांकाणी के इस भगीरथ प्रयास को सुधि पाठक गहराई से आत्मसात करेँगे और उनकी कविताओं से प्रेरणा पाकर अपने जीवन को सुगम भी बना सकेंगे। स्वान्त सुखाय लेखनी भी अक्सर सिद्ध रचनाकारों से बड़ी कविताऐं लिखवा देतीं है।  श्री भागीरथ कांकाणी की  यह काव्य पुस्तक पाठकों को एक नया संसार देगी।  

अनंत शुभ कामनाऐं।  अक्षय तृतीया २०७१ , २ मई २०१४
                                                                                                                            

दिनेश  रघुवंशी
कवि 
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