शनिवार, 28 जून 2014

खानाबदोश औरत

खानाबदोश औरत 
अपनी मांसल देह के साथ 
बिना थके नापती रहती है
पुरे प्रदेश को

लम्बे-चौड़े डग भरती 
चलती चली जाती है 
परिवार के साथ 
एक गांव से दुसरे गाँव को

बिना सर्दी-गर्मी की 
परवाह किये कहीं भी   
डाल लेती है डेरा 
सिर छुपाने को

चक्कर लगाती रहती है 
ट्रको और बसों का 
झोली में रखे सामान 
बेचने को

ड्राइवर होठों  पर 
कुटिल मुस्कान लिए 
घूरते है उसके माँसल
बदन को

समेटती खुद को
उन भेदती निगाहों से जो 
छील देती है जिस्म के
अंतस को 

सांझ ढले वह
माँ, बहन, पत्नी होती है
लेकिन वो डेरा होता है
घर नही होता उसका

अपने घर का सपना
उसकी आँखों में ही रह जाता है
और अक्सर यह सपना 
आँसूओं में ढल कर बह जाता है।  

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